About

Vadtaldham

भाग्यशाली भारत की भूमि पर अनेक अवतारों ने अपना अवतरणकार्य करके धर्म की पुनः स्थापना और असुरों का नाश कर भक्तों की रक्षा की है। इसी प्रकार, 18वीं सदी में जब आसुरी वृत्तियों ने अराजकता फैला दी थी, अधर्म का शासन बढ़ रहा था, बेटियों को दूध पीती और सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं लोगों के मन में घर कर चुकी थीं। अहिंसात्मक यज्ञों से मलिन देवताओं की आराधना होती थी। लोगों को धर्म-अधर्म, पाप और पुण्य में अंतर समझ नहीं आता था। उस समय रक्षक ही भक्षक बन गए थे, तब अंधकार में डूबी मानवजाति को धर्म, सत्य, पुण्य और सद्विद्या से तारने और मलिन शक्तियों तथा आसुरी वृत्तियों का नाश करने के लिए भगवान श्री स्वामिनारायण ने इस धरती पर अवतार लिया, धर्म की पुनः स्थापना की और धर्म की यह ज्योति सदियों तक प्रज्वलित रहे इसके लिए देव, मंदिर, शास्त्र, आचार्य, संत और हरिभक्त इस षडंगी स्वामिनारायण संप्रदाय की स्थापना की।
मूल स्वामिनारायण संप्रदाय का वैश्विक केंद्र है वड़ताल धाम। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान श्री स्वामिनारायण ने स्वयं अपने हाथों से मंदिर की नींव में ईंटें उठाकर मंदिर का निर्माण करवाया |
भगवान श्री स्वामिनारायण स्वयं कहते हैं, “जानित द्वारकाधीश्वरः स्वयम् ।।” सभी तीर्थों में उत्तम माने जाने वाले द्वारका तीर्थ के आराध्यदेव श्री रणछोड़रायजी स्वयं सद्गुरु सच्चिदानंदस्वामी की प्रार्थना और विनती से द्वारका के गोमती आदि तीर्थों सहित वड़ताल में प्रकट होते हैं। इसलिए आज भी मंदिर के मध्य गर्भगृह में भगवान श्रीरणछोड़रायजी बिराजमान हैं।
मूल स्वामिनारायण संप्रदाय का वैश्विक केंद्र है वड़ताल धाम। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान श्री स्वामिनारायण ने स्वयं अपने हाथों से मंदिर की नींव में ईंटें उठाकर मंदिर का निर्माण करवाया और स्वयं श्रीहरिकृष्ण महाराज और भगवान श्री लक्ष्मीनारायण देव की प्रतिमा स्थापित करके अपने समान दैवत्व की स्थापना की। भगवान श्री स्वामिनारायण स्वयं कहते हैं, “जानित द्वारकाधीश्वरः स्वयम् ।।” सभी तीर्थों में उत्तम माने जाने वाले द्वारका तीर्थ के आराध्यदेव श्री रणछोड़रायजी स्वयं सद्गुरु सच्चिदानंदस्वामी की प्रार्थना और विनती से द्वारका के गोमती आदि तीर्थों सहित वड़ताल में प्रकट होते हैं। इसलिए आज भी मंदिर के मध्य गर्भगृह में भगवान श्रीरणछोड़रायजी बिराजमान हैं।
સદગુરુ શ્રી બ્રહ્માનંદ સ્વામી દ્વારા કમલાકૃતિમાં નિર્મિત 9 શિખરયુક્ત આ મંદિર આજે સુવર્ણ શિખરોથી સજ્જ છે. હરિનવમી અને પૂનમના દિવસે લાખોની સંખ્યામાં લોકો પગપાળા વડતાલની યાત્રા કરી અને શ્રીહરિકૃષ્ણમહારાજના ચરણોમાં નતમસ્તક થાય છે. આ દૃશ્ય જોઈને લાગે કે વડતાલમાં ભક્તિસાગર છલકાતો હોય.
आध्यात्मिक जगत के केंद्रबिंदु समान वड़ताल आज केवल सांप्रदायिक मंदिर नहीं है, बल्कि मानव जीवन में सेवा, संस्कार, सुहृदभाव, संस्कृति का संरक्षण और आध्यात्मिक उन्नति को अंकुरित करने वाला हमारी सनातन संस्कृति का वैश्विक केंद्र भी है।
देव
प्राचीन काल में, ब्रह्माजी के मानस पुत्र भृगु ऋषि और उनकी पत्नी ख्यातादेवी नर्मदा किनारे (भरूच में) अपने आश्रम के निकट वन में निवास कर रहे थे और महालक्ष्मी माता की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। तब दोनों ने मांग की कि 'आप हमारे यहां पुत्री रूप में अवतार लें।' लक्ष्मीजी ने तथास्तु कहा।
समय बीतने पर लक्ष्मीजी भृगु ऋषि की धर्मपत्नी ख्यातादेवी के यहां पुत्री रूप में प्रकट हुईं, लेकिन भगवान की माया के कारण दोनों भूल गए कि उनकी पुत्री साक्षात महालक्ष्मी हैं। जब पुत्री युवा हुई तो नारदजी उनके आश्रम आए। तब दोनों ने पुत्री के भविष्य के बारे में पूछा। तब नारदजी ने पुत्री की ओर देखकर कहा, "इस पुत्री के लिए भगवान विष्णु के सिवाय अन्य कोई वर हो ही नहीं सकता। परंतु भगवान विष्णु को वर रूप में प्राप्त करने के लिए तुम्हें तप करना पड़ेगा।"
कहें नारद सांभळ बाई, कहुं क्षेत्र अक्षय फळ दाई; महिसागर ने वेत्रवती, त्रीजी साभ्रमती करे गति, तेह त्रणेना मध्ये पवन, पावन हितकारी छे हेडंबा वन; तमे त्यां रहीने तप करो, हैये ध्यान श्रीकृष्णनुं धरो”
- श्रीहरिलीलामृत ७.५, वि.१०
नारदजी ने जो स्थान बताया वह आज का वड़तालधाम मंदिर है! लक्ष्मीजी हेडंबा वन (वड़ताल) आईं और एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे (आज के मंदिर के स्थान पर) बैठकर तप करने लगीं।
नारायण प्रसन्न होकर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा। तब लक्ष्मी माता ने कहा, "मेरे साथ विवाह करें और मुझे हमेशा अपनी सेवा में रखें।" नारायण लक्ष्मीजी पर प्रसन्न होकर उन्हें दूसरा वरदान मांगने को कहा। तब लक्ष्मीजी कहने लगीं:
“कमला कहे करुणा निधान, मने वालुं लागे छे आ स्थान; अहीं मंदिर मोटुं रचाय, तेमां आपणी मूर्ति स्थपाय। तीर्थ सर्वोपरी आ गणाय, करे पुण्य अक्षय फळ थाय; करे इच्छाथी जो अनुष्ठान, पामे ते धन धान्य संतान, मुनि मोटा आश्रम करी रहे, तीर्थ करवा ब्रह्मादिक चहे; करे भक्ति ठरीने आ ठामे, मोक्षार्थी ते मोक्षने पामे"
श्री हरिलीलामृत 7.5, वि.10
लक्ष्मीजी की इस अद्भुत मांग को सुनकर भगवान नारायण प्रसन्न हुए और बोले, "जब कलियुग का समय होगा, तब अक्षरधाम के अधिपति पुरुषोत्तम नारायण इस पृथ्वी पर प्रकट होकर धर्म की स्थापना करेंगे और इस स्थान पर एक बड़ा मंदिर बनवाकर हमारी दोनों की मूर्तियों की स्थापना करेंगे।"
नारायण के वरदान के अनुसार और लक्ष्मीजी की मांग को सत्य करने के लिए ही भगवान स्वामिनारायण ने उस बोरडी के स्थान पर भव्य मंदिर बनवाया है, और उसमें 'श्री लक्ष्मीनारायण देव' की स्थापना की है। आज यह मंदिर जगत प्रसिद्ध है।
मंदिर
भाग्यशाली भारत की भूमि पर अनेक अवतारों ने अपना अवतरणकार्य करके धर्म की पुनः स्थापना और असुरों का नाश कर भक्तों की रक्षा की है। इसी प्रकार, 18वीं सदी में जब आसुरी वृत्तियों ने अराजकता फैला दी थी, अधर्म का शासन बढ़ रहा था, बेटियों को दूध पीती और सती प्रथा जैसी कुप्रथाएं लोगों के मन में घर कर चुकी थीं। अहिंसात्मक यज्ञों से मलिन देवताओं की आराधना होती थी। लोगों को धर्म-अधर्म, पाप और पुण्य में अंतर समझ नहीं आता था। उस समय रक्षक ही भक्षक बन गए थे, तब अंधकार में डूबी मानवजाति को धर्म, सत्य, पुण्य और सद्विद्या से तारने और मलिन शक्तियों तथा आसुरी वृत्तियों का नाश करने के लिए भगवान श्री स्वामिनारायण ने इस धरती पर अवतार लिया, धर्म की पुनः स्थापना की और धर्म की यह ज्योति सदियों तक प्रज्वलित रहे इसके लिए देव, मंदिर, शास्त्र, आचार्य, संत और हरिभक्त इस षडंगी स्वामिनारायण संप्रदाय की स्थापना की।
मूल स्वामिनारायण संप्रदाय का वैश्विक केंद्र है वड़ताल धाम। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ भगवान श्री स्वामिनारायण ने स्वयं अपने हाथों से मंदिर की नींव में ईंटें उठाकर मंदिर का निर्माण करवाया और स्वयं श्रीहरिकृष्ण महाराज और भगवान श्री लक्ष्मीनारायण देव की प्रतिमा स्थापित करके अपने समान दैवत्व की स्थापना की। भगवान श्री स्वामिनारायण स्वयं कहते हैं, “जानित द्वारकाधीश्वरः स्वयम् ।।” सभी तीर्थों में उत्तम माने जाने वाले द्वारका तीर्थ के आराध्यदेव श्री रणछोड़रायजी स्वयं सद्गुरु सच्चिदानंदस्वामी की प्रार्थना और विनती से द्वारका के गोमती आदि तीर्थों सहित वड़ताल में प्रकट होते हैं। इसलिए आज भी मंदिर के मध्य गर्भगृह में भगवान श्रीरणछोड़रायजी बिराजमान हैं।
वड़ताल की यह वही पुण्य भूमि है जहाँ साक्षात माँ लक्ष्मीजी ने तप किया था। अपने जीवनकाल में भगवान श्री स्वामिनारायण 40 बार वड़ताल पधारें और सत्संग प्रवर्तन तथा उत्सव समारोह किए। यहीं पर भगवान श्रीहरि ने संप्रदाय के व्यवस्थापन और मुमुक्षुओं के गुरु रूप में आचार्य पद की स्थापना की। आज यह आचार्य परंपरा अहमदाबाद के कालुपुर और वड़ताल में विद्यमान है। जीवन को उत्कृष्ट बनाकर मोक्ष तक का मार्ग प्रशस्त करने वाली शिक्षापत्री ग्रंथ की रचना भी श्रीहरि ने वड़ताल की पुण्य भूमि पर ही की है।
सद्गुरु श्री ब्रह्मानंद स्वामी द्वारा कमलाकृति में निर्मित 9 शिखरों वाला यह मंदिर आज स्वर्ण शिखरों से सुसज्जित है। हरिनवमी और पूर्णिमा के दिन लाखों की संख्या में लोग पैदल वड़ताल की यात्रा कर श्रीहरिकृष्ण महाराज के चरणों में नतमस्तक होते हैं। यह दृश्य देखकर ऐसा लगता है कि वड़ताल में भक्तिसागर छलक रहा हो।
आध्यात्मिक जगत के केंद्रबिंदु समान वड़ताल आज केवल सांप्रदायिक मंदिर नहीं है, बल्कि मानव जीवन में सेवा, संस्कार, सुहृदभाव, संस्कृति का संरक्षण और आध्यात्मिक उन्नति को अंकुरित करने वाला हमारी सनातन संस्कृति का वैश्विक केंद्र भी है।
शास्त्र
स्वामिनारायण परंपरा में साहित्य लेखन की परंपरा को भगवान श्री स्वामिनारायण ने स्वयं बनाए रखा है। संवत 1882 में उन्होंने 212 श्लोकों से युक्त शिक्षापत्रि ग्रंथ की रचना की। वचनामृत*, जो श्री हरि के सीधे वचन हैं, परंपरा के सैद्धांतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके अलावा, परंपरा को ज्ञानी आचार्यों, तपस्वियों, संतों और भक्तों द्वारा लिखी गई साहित्यिक रचनाओं से समृद्ध किया गया है। श्री हरि कृष्ण नारायण चरित्रामृत और ध्यान मंजरी लिखा, जबकि आधारानंद स्वामी ने श्री हरि चरित्रामृत सागर (पुस्तकें 1 से 28) लिखा, और मंजुकेशानंद स्वामी ने ऐश्वर्यप्रकाश और धर्मप्रकाश जैसे ग्रंथों का योगदान दिया। ये ग्रंथ हिंदी और गुजराती कविता में महत्वपूर्ण योगदान हैं। समय के साथ, परंपरा में साहित्य की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में होने लगी हैं। आज स्वामिनारायण परंपरा के पास हजारों ग्रंथ उपलब्ध हैं, जो कई विद्वानों, संतों और भक्तों द्वारा लिखे गए हैं। वडताल धाम में विभिन्न भाषाओं में सांप्रदायिक साहित्य की रचना, अनावरण, प्रकाशन और मुद्रण किया जा रहा है। वडताल में पिछले 150 वर्षों से चल रहे पुस्तकालय में हमारे गौरवशाली इतिहास, महापुरुषों की जीवनियाँ, परंपरागत इतिहास, वेद ग्रंथ और गुजराती साहित्य की 16,700 पुस्तकें, 5,100 पत्रिकाएँ और 1,300 हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं।
विशाल साहित्यिक सेवाओं के माध्यम से, स्वामिनारायण परंपरा लाखों लोगों के मन में वैदिक विचारों को स्थापित कर रही है और
अनगिनत लोगों के जीवन को सुधार रही है।
હે ભકતો ! વડતાલધામમાં સ્વામિનારાયણ ભગવાને કમળાકાર મંદિર બનાવી શ્રીલક્ષ્મીનારાયણદેવ જ શા માટે પધરાવ્યા ? એની પાછળ જે ઈતિહાસ છે તે આપની આગળ જણાવું છું. તે સાંભળીને વડતાલનો મહિમા વિશેષ સમજાશે.
હે ભક્તો ! પૂર્વકાળમાં બ્રહ્માજીના માનસપુત્ર ભૃગુભાષિ અને તેમનાં પત્ની ખ્યાતાદેવી નર્મદા કિનારે (ભરૂચમાં) પોતાના આશ્રમની નજીક વનમાં રહી મહાલક્ષ્મી માતાની આરાધના કરવા લાગ્યા. તેથી પ્રસન્ન થઈ લક્ષ્મીજીએ વરદાન માગવા કહ્યું તેથી બન્નેએ માગ્યું કે ‘અમારે ત્યાં આપ પુત્રીરૂપે અવતાર ધારણ કરો. ત્યારે લક્ષ્મીજીએ તથાસ્તુ કહ્યું
હૈ ભકતો ! સમય જતાં લક્ષ્મીજી ભૃગુત્રૠષિના ધર્મપતની ખ્યાતા દેવીને ત્યાં પુત્રીરૂપે પ્રગટ્યાં, પરંતુ ભગવાનની માયાને કારણે બન્ને ભૂલી ગયાં કે, પોતાની પુત્રી સાક્ષાત્ મહાલક્ષ્મી માતા છે. પુત્રી યુવાન થઈ ત્યારે નારદજી તેઓના આશ્રમે આવ્યા. તેથી બન્નેએ પુત્રીના ભવિષ્ય વિષે પૂછયું. જાણે કે સ્વયં લક્ષ્મીજી પણ માયાના આવરણમાં આવી ગયા હોયને શું ? એમ નારદજીને પૂછવા લાગ્યાં:
“૨માં નારદને પગે લાગી, વર જોક પોતા તુલ્યા માગી; ત્યારે બોવ્યા નાદ ઋષિરાય, તુંજ યોગ્ય તો વિષ્ણુ ગણાય. તપ ઉંઝ કર્યું હોય જ્યારે, તેને વિષ્ણુ મળે વર ત્યારે; કહે લરૂપી કહ્યું તમે પારરું, કઠો કયાં જઈને તપ કરું ? કહે નારદ સાંભળ બાઈ, કહું ફક્ષેત્ર અક્ષય ફળ દાઈ; મહિસાગર ને વેત્રવતી, ત્રીજી સાભ્રમતી કરે ગતિ, તેહ ત્રણેના મધ્યે પવન, પાવન હિતકારી છે હેઠંબા વel; તમે ત્યાં રહીને તપ કરો, હૈચે ધ્યાન શ્રીકૃણનું ધરો.” – શ્રીહરિલીલામૃત ૭.૫, વિ.10
હે ભક્તો ! નારદજીએ ઉપરોક્ત સ્થળ બતાવ્યું એ જ આજનું વડતાલધામનું મંદિર ! લક્ષ્મીજી હેડંબા વનમાં (વડતાલમાં) આવ્યાં અને એક વિશાળ બોરડી નીચે (આજે મંદિર છે તે સ્થાનમાં બેસી તપ કરવા લાગ્યા. તેથી નારાયણે પ્રગટ થઈ વરદાન માગવા કહ્યું. ત્યારે લક્ષ્મી માતાએ માગ્યું: “મારી સાથે લગ્ન કરો અને કાયમ આપની સેવામાં રાખો.” હે ભક્તો ! લક્ષ્મીજી પર પ્રસન્ન થઈ નારાયણે બીજું વરદાન માગવા કહ્યું. ત્યારે લક્ષ્મીજી કહેવા લાગ્યાંઃ
“કમળા કહે કરુણા નિધાન, મને વાલું લાગે છે આ સ્થાન; આંહી મંદિર મોટું રચાય, તેમાં આપણી મૂર્તિ થપાય. તીર્થ સર્વોપરી આ ગણાય, કરે પુણ્ય અક્ષય ફળ થાય; કરે ઈચ્છાથી જો અનુષ્ઠાન, પામે તે ધન ધાન્ય સંતાન. મુનિ મોટા આશ્રમ કરી રહે, તીર્થ કરવા બ્રહ્માદિક ચહે; કરે ભક્તિ ઠરીને આ ઠામે, મોક્ષાર્થી તે મોક્ષને પામે.” – શ્રીહરિલીલામૃત ક.૫, વિ.૨૦
હે ભક્તો ! લક્ષ્મીજીની આવી અલૌકીક માંગણી સાંભળી ભગવાન નારાયણ રાજી થયા અને બોલ્યા : ‘જયારે કળિયુગ ચાલતો હશે ત્યારે અક્ષરધામના અધિપતિ પુરુષોત્તમ નારાયણ આ પૃથ્વી પર પ્રગટ થઈ ધર્મનું સ્થાપન કરશે અને આ સ્થાને જ મોટું મંદિર કરાવી આપણી બન્નેની મૂર્તિ એ મંદિરમાં પધરાવશે.”
હે ભક્તો ! નારાયણના વરદાન પ્રમાણે અને લક્ષ્મીજીની માગણીને સત્ય કરવા માટે જ સ્વામિનારાયણ ભગવાને એ બોરડીના સ્થાને ભવ્ય મંદિર બંધાવ્યું છે, અને એમાં ‘શ્રીલક્ષ્મીનારાયણદેવ’ પધરાવેલ છે. આજે આ મંદિર જગ પ્રસિદ્ધ બની ગયું છે. નામ છે ‘વડતાલધામ સ્વામિનારાયણ મંદિર’, પણ મંદિરના મધ્ય ભાગમાં મુખ્ય શિખર નીચે શ્રીલક્ષ્મીનારાયણ દેવ પધરાવ્યા છે, કારણ કે લક્ષ્મીજી અને નારાયણ બન્નેની ઈચ્છા આ સ્થાનમાં નિવાસ કરવાની હતી.